डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 रेत सी फ़िसलती जिंदगी


 


रेत सी फ़िसलती जिंदगी ,


पल दो पल की अनिश्चित,


जलभ्रमर में फँसी दुर्लभ ,


प्राणियों में श्रेष्ठतर मानवी,


अहंकारी मदोन्मत्त जिंदगी।


प्रकृति या यों कहें कुदरती ,


तोहफ़ा अनमोल धरोहर सम्पदा,


खुली सारी प्रकृति वसुन्धरा,


अन्तस्थल , भूतल ,जल, गगन,


शस्य श्यामला हरीतिमा ,


सर्वसौविध्य से भरपूर अनन्त,


खनिज सम्पदा ,नाना वन सम्पद,


सागर ,नदी , झील ,निर्झर, सरोवर,


सुरभित कुसुमित फलदार विविध तरु,


वनौषधियों से सुसज्जित हिमाद्रि आंचल,


रवि,शशि,वायु अनल नभ ,


षड्ऋतु विभक्त प्राणी सुलभ 


पर्यावरण जीवन्त निर्मल सुगम,


सब कुछ जो चाहत हो आम जीवन।


परन्तु अनवरत लिप्सा मानव मन ,


फँस मायाजाल लोभ ,छल कपट,


मिथ्या,हिंसा ,क्रोध, शोक संतप्त,


जीजिविषा अनन्त अहर्निश सुरसा सम,


कर क्षत विक्षत सुष्मित प्रकृति अन्तस्तल,


दीन दुःखी ,अवसादित दलित पीड़ित,


सड़कछाप लावारिस मजदूरों पर ,


ढाता कहर बन क्रूरकर्मा निशाचर,


दुर्दान्त ,दुष्कर्म अनवरत चलता पथ,


मानवीय नैतिक मूल्यों को कर तिरोहन,


त्याग न्याय ,शील कर्म विरत,


बस, केवल जिस किसी तरह भी,


आतुर भौतिकता के चकाचौंध फँस


बढ़ता निरत सफ़लता का आरोहण, 


एक तरफ़ दाने दाने को मोहताज़ ,


बिन गेह वसन कुछ पाने को 


अभिलाष मन, विकल दुःखार्त जन,


नित अवहेलित २१वीं सदी आज़ाद वतन,


शिक्षा ,सुख,इज्ज़त खुशियाँ नदारद,


मानो बन गई जिंदगी बंजर रेतीली,


मरुभूमि शुष्क निष्ठुर ज्वालामुखी सम,


सोपान सत्ता का चिरन्तन ,निर्माणक


नेता ,जेता विजेता प्रशासक वतन,


किन्तु अनवरत जीता पशुवत जीवन,


जन मन गणतन्त्र सब सुलभ ,


पर असफल तीन चौथाई आबादी,


कराहती ,सिसकती भूख, न्यायार्थ,


कोख से चिपका कर अपनी सन्तति,


असहाय दर्द को छिपा मौन चक्षु खोदर,


आज भी जूठे पत्तल चाटने को विवश,


संघर्षरत यायावर अबाध अनिश्चित पथी,


निर्माणक उत्पादक स्वयं दुनिया के,


सकल सुख सुविधा कृषि उद्योग तक,


रेल सड़क ,सेतु आलिशां महल,


पर खुद़ के लिए अम्बर छत 


आतप वारिस थिथुरन नित,


कैसी जिंदगी ,कैसी आजादी ,


बनकर खड़ी एक शाश्वत प्रश्न चिह्न,


जानता है मनुज सब कुछ यहीं,


छोड़ चल देगा किसी भी पल जहां ,


साथ न देगा प्रियतर तन सर्वाधिक मनुज,


जाएगा केवल अनकहे कमाये 


सुकीर्ति परहित अनमोल फल, 


पर स्वार्थी मनुज खो मति विवेक,


बिन रुके जीवन भर भागमभाग,


मरुस्थली रेत बन जलाता निरन्तर,


मानवता ,इन्सानियत खु़द की ज़मीर,


भूल सकल कर्तव्य समाज ए वतन,


बस दम्भी बन अर्थहीन करता ,


खूबसूरत लम्हें जिंदगी के अविरल,


दुर्लभ भाग्य से पाये पल दो पल,


बनाते हुए ज़हन्नुम ए कयामत,


पर जिंदगी फ़िसलती जाती 


बन रेत सी सब कुछ दहकती नीरस।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


         नई दिल्ली


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