डॉ वन्दना सिंह

यह कैसा आजादी का दिवस आया ?


घरों में कैद हैं हम 


यह कैसा डर है फिजाओं में है छाया?


 घरों में कैद हैं हम 


आजादी कब मिलेगी दिल सोचता है ?


कब फिर से उड़ेंगे हम?


 हटेगा कब यह मनहूसियत का साया?


 घरों में कैद हैं हम


 यूं ही अनायास बिना कुछ किए 


जो मिल गई थी हमको आजादी 


नहीं उसकी कीमत जानते थे 


हर चीज से थी शिकायत 


जो मिल रहा ,कीमत ना उसकी 


पहचानते थे


एक अदृश्य वायरस के खौफ ने 


सब को रुलाया 


मंडरा रहा है सबके सिरों पर 


मौत का साया


  


 आजादी हमको मिली 


73 साल हो गए


पर आजादी की कद्र हमने


 नहीं थी जानी 


आजादी के नाम पर दंगे हुए 


  इस देश में


 करते रहे सब मनमानी


 बिना आत्मनिर्भर हुए 


आजादी के मायने भी क्या?


  सुई से लेकर जहाज तक 


विदेशों से मंगाते हैं हम 


खुद की संस्कृति का ज्ञान नहीं 


विदेशी पर इतराते हैं हम 


कहने को हम


 आजाद हैं बरसों से 


पर मानसिक गुलामी करते हैं हम


 खोखला सिस्टम हमारा 


खोखला समाज है


 आज भी पश्चिम की हर बात में


 हामी भरते हैं हम 


हम भी भारत को विश्व का 


सिरमौर बना सकते थे 


पर आपसी फूट ने और 


   तंत्र की लूट ने 


  देश को आगे बढ़ने न दिया।


 ये वक़्त है ठहर कर


 एक बार फिर


 गलतियों को समझो ,सुधारो।


ये बरस जैसे भी जाये 


 अगले बरस मन में 


नई उमंग भरकर पधारो ।


एक दिन झंडा फहराकर 


  देशभक्ति के गीत गाकर 


अकर्मण्यता की चादर में 


    फिर खुद को छुपा कर


  आपसी विद्वेष को 


    अपने ज्ञान से हम सींचते हैं


   GDP का पहाड़ा पढ़ने वाले


       बात बात में चीखते हैं!


       TV पर देखिए -


     रोज़ बढ़ते आंकड़ों को 


      और डिबेट में रोज आनेवाले


      नए पुराने रणबांकुरों को।


     कैसे कोरोना ने कर दिया 


     जीवन का एक बरस जाया!


  कैसा इस बार आज़ादी का दिवस आया?


 कैसा इस बार आजादी का दिवस आया


 


Written by -Dr. Vandana Singh


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