डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


स्थिर चितइ जोरि निज हाथा।


प्रभु-चरनहिं नवाय निज माथा।।


    तजि भव-भय बसुदेव असोका।


    करन लगे स्तुति बिनु रोका।।


प्रकृति अतीत नाथ पुरुषोत्तम।


जानहुँ मैं प्रभु तुमहिं नरोत्तम।।


    नाथ रूप-अनुभूति अनंदा।


    दरस प्रभू कै नंदइ-नंदा।।


मात्र एक प्रभु बुद्धि-प्रमाना।


कहहिं सकल अस बेद-पुराना।।


     जगत त्रिगुनमय सृष्टी करहीं।


     नाथहिं प्रकृति जगत भर रहहीं।।


बिनू प्रबिषटहिं प्रभू प्रविष्टा।


अदृस रहहिं प्रभु जग कै स्रष्टा।।


     कारन-तत्त्व पृथक सभ रहहीं।


     पृथकहिं-पृथक सक्ति सभ अहहीं।।


मिलतइ पर षट दसहिं बिकारा।


तत्व-सक्ति-इंद्रियादिहिं सारा।।


     रचना करि ब्रह्मांडहिं नाथा।


     रहहिं अलख जग-तत्वहिं साथा।।


बुद्धिमात्र गुन-लच्छन देवहिं।


इंद्रिमात्र गुन बिषयहिं सेवहिं।।


    जदपि प्रभू कै उहहिं निवासा।


    पर नहिं दरस नाथ तहँ आसा।।


अंतरजामी,आतम-रूपा।


सत परमारथ नाथ अनूपा।।


     अजर-अमर अरु अलख-असीमा।


     प्रभुहिं अंस सभ जीव महीमा।।


देह-गेह अरु बाग-बिलासा।


साँच नहीं ए रखु बिस्वासा।।


     जदपि नाथ गुनरहित बिकारा।


      तदपि करहिं रचना संसारा।।


रच्छहिं-नासहिं तीनिउ लोका।


सकल प्रकास प्रभू-आलोका।।


     सत्व सुकुल प्रभु बिष्नुहिं रूपा।


     पोषहिं-सरजहिं नाथ अनूपा।।


रुधिर बरन रज ब्रह्मा बनि के।


रचहिं बिस्व प्रभु इहवाँ ठहि के।।


तमोगुनहिं प्रभु कृष्नहिं बरना।


रुद्र रूप बनि नासहिं रचना।।


     नाथ कृपालू सक्ति अनंता।


      मम गृह जनम लीन्ह भगवंता।।


तुमहीं प्रभो सकल जग-स्वामी।


करउ सँहार असुर नृप नामी।।


      सुनहु नाथ ई कंसइ पापी।


       तव अवतार सुनत संतापी।।


धावत इहँ आई लइ सस्त्रा।


मुक्त बृषभ इव परम सुतंत्रा।।


सोरठा-भ्रातन्ह तव सभ जेठ,हता कंस निर्मम हृदय।


           सुनि अवतारहिं श्रेष्ठ,प्रभु सन कह बसुदेव अस।।


           कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित ध्यान धरि।


          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...