डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-38


 


उठहु भरत निज मरम बतावहु।


जे कछु मन तव तुरत जतावहु।।


     भरत तुरत उठि सभ जन नमहीं।


     अति बिनम्र हो प्रभु तें कहहीं।।


मैं जानहुँ प्रभु अति लरिकाईं।


खेले-कूदे प्रभु-परिछाईं।।


    बरबस मोंहि जितावहिं रघुबर।


    हारे जदि हम खेल म गुरुवर।।


मम अपराध न मानैं रघुबर।


मम हित करैं करैं जस दिनकर।।


    कस पंकज बिनु नीर तड़ागा।


    धिक ऊ जनम न प्रभु-अनुरागा।।


मोरि अभागि कि मैं बड़ पापी।


मातु-करनि भोगहुँ अभिसापी।।


     छमहु नाथ जदि अनुचित कहऊँ।


     सत तव प्रेम मातु प्रति जनऊँ।।


दंड मोंहि प्रभु जे कछु देउब।


ताहि बिनम्रहिं सिर धरि लेउब।।


    कपटी-कुटिल-पिचाली माता।


     तासु पुत्र नहिं जग को भाता।।


डाइन-कोंख संत नहिं जाए।


बाँस-करील न कमल खिलाए।।


    जाय न जड़ता केहू भाँती।


    भले बिरंचि लगावहिं छाती।।


पाथर-मूल कुसुम कस जाए।


कास त कास कास कहलाए।।


    निर्मम-निष्ठुर जे निरमोही।


    प्रभु तव कृपा मृदुल ही होही।।


मों पे कृपा करहु जग-स्वामी।


तव पद-पंकज मैं अनुगामी।।


    चाहेहुँ मैं प्रभु तव अभिषेकू।


     करउ इ काजु नाथ बड़ नेकू।।


सबहिं उबारउ लवटि अजुधिया।


तम-कलंक हरि बारउ दीया।।


    हम निज धरम समुझि बन रहबै।


    सत्रुहिं सँग लइ पितु-प्रन रखबै।।


अस कहि भरत नेत्र भरि आवा।


दीप-प्रकास करिख जनु छावा।।


    सभ जन हृदय द्रवित तब भवई।


     जनु सभ देह रहित तहँ लगई।।


दोहा-भाउक भवहीं सबहिं तहँ,बिकल लगहिं तजि धीर।


        राम-बसिष्ठ-सुमंतु सुनि,भरत-बचन गंभीर।।


        राम उठे तत्काल तब,सबहिं कहहिं समुझाइ।


        भरत-प्रेम अह सिंधु सम,थाह कोऊ नहिं पाइ।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       9919446372


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