द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-38
उठहु भरत निज मरम बतावहु।
जे कछु मन तव तुरत जतावहु।।
भरत तुरत उठि सभ जन नमहीं।
अति बिनम्र हो प्रभु तें कहहीं।।
मैं जानहुँ प्रभु अति लरिकाईं।
खेले-कूदे प्रभु-परिछाईं।।
बरबस मोंहि जितावहिं रघुबर।
हारे जदि हम खेल म गुरुवर।।
मम अपराध न मानैं रघुबर।
मम हित करैं करैं जस दिनकर।।
कस पंकज बिनु नीर तड़ागा।
धिक ऊ जनम न प्रभु-अनुरागा।।
मोरि अभागि कि मैं बड़ पापी।
मातु-करनि भोगहुँ अभिसापी।।
छमहु नाथ जदि अनुचित कहऊँ।
सत तव प्रेम मातु प्रति जनऊँ।।
दंड मोंहि प्रभु जे कछु देउब।
ताहि बिनम्रहिं सिर धरि लेउब।।
कपटी-कुटिल-पिचाली माता।
तासु पुत्र नहिं जग को भाता।।
डाइन-कोंख संत नहिं जाए।
बाँस-करील न कमल खिलाए।।
जाय न जड़ता केहू भाँती।
भले बिरंचि लगावहिं छाती।।
पाथर-मूल कुसुम कस जाए।
कास त कास कास कहलाए।।
निर्मम-निष्ठुर जे निरमोही।
प्रभु तव कृपा मृदुल ही होही।।
मों पे कृपा करहु जग-स्वामी।
तव पद-पंकज मैं अनुगामी।।
चाहेहुँ मैं प्रभु तव अभिषेकू।
करउ इ काजु नाथ बड़ नेकू।।
सबहिं उबारउ लवटि अजुधिया।
तम-कलंक हरि बारउ दीया।।
हम निज धरम समुझि बन रहबै।
सत्रुहिं सँग लइ पितु-प्रन रखबै।।
अस कहि भरत नेत्र भरि आवा।
दीप-प्रकास करिख जनु छावा।।
सभ जन हृदय द्रवित तब भवई।
जनु सभ देह रहित तहँ लगई।।
दोहा-भाउक भवहीं सबहिं तहँ,बिकल लगहिं तजि धीर।
राम-बसिष्ठ-सुमंतु सुनि,भरत-बचन गंभीर।।
राम उठे तत्काल तब,सबहिं कहहिं समुझाइ।
भरत-प्रेम अह सिंधु सम,थाह कोऊ नहिं पाइ।।
डॉ0 हरिनाथ मिश्र
9919446372
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