डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


समदरसी प्रभु बानी मधुरा।


काटहु कष्ट नाथ जन मथुरा।।


    ई जग बिटप सनातन एका।


    देवहि प्रकृति आश्रयहि यहिका।।


दुइ फर लागहिं यहि तरु माहीं।


सुख-दुख जे जग सकल कहाहीं।।


     सत-रज-तम बस तीनहिं मूला।


     गुन ई तीनिउ जग नहिं भूला।।


धर्म-अर्थ अरु मोच्छइ-कामा।


रहहिं चारि यहि तरु कै नामा।।


     रसना-त्वचा-नासिका-लोचन।


      कानहिं पाँच ग्यान तरु रोचन।।


जनम-रहनि-परिवर्तन-बढ़ना।


षटहिं सुभाउ नष्ट अरु घटना।।


    छालहिं सात बृच्छ कै आहीं।


    धातू सातहिं जगत कहाहीं।।


रुधिर-मांस-रस-मेदा-मज्जा।


अस्थि-सुक्र तें बिटपै सज्जा।।


    साखा आठ-पाँच महभूता।


    अहंकार-मन-बुद्धि सबूता।।


नौ दुवार मुख खोड़र आहीं।


दस तरु- परनहिं प्रान कहाहीं।।


    ब्यान व प्रान-अपान-उदाना।


    नागइ-कृकल व कूर्म- समाना।।


देवयिदत्त-धनञ्जय प्राना।


दस ई प्रान जगत खलु जाना।।


   पंछी दूइ बिटप पर रहहीं।


   इस्वर-जीव जगत जे कहहीं।।


नाथ अधार तुमहिं भव तरु कै।


तुमहिं-बिकास-बिनास वही कै।।


दोहा-आबृत तव माया चितइ,खोज सकै नहिं सत्य।


         तत्व-ग्यान-ग्यानी पुरुष,कह प्रभु एक अमर्त्य।।


                       डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                         


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