दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
समदरसी प्रभु बानी मधुरा।
काटहु कष्ट नाथ जन मथुरा।।
ई जग बिटप सनातन एका।
देवहि प्रकृति आश्रयहि यहिका।।
दुइ फर लागहिं यहि तरु माहीं।
सुख-दुख जे जग सकल कहाहीं।।
सत-रज-तम बस तीनहिं मूला।
गुन ई तीनिउ जग नहिं भूला।।
धर्म-अर्थ अरु मोच्छइ-कामा।
रहहिं चारि यहि तरु कै नामा।।
रसना-त्वचा-नासिका-लोचन।
कानहिं पाँच ग्यान तरु रोचन।।
जनम-रहनि-परिवर्तन-बढ़ना।
षटहिं सुभाउ नष्ट अरु घटना।।
छालहिं सात बृच्छ कै आहीं।
धातू सातहिं जगत कहाहीं।।
रुधिर-मांस-रस-मेदा-मज्जा।
अस्थि-सुक्र तें बिटपै सज्जा।।
साखा आठ-पाँच महभूता।
अहंकार-मन-बुद्धि सबूता।।
नौ दुवार मुख खोड़र आहीं।
दस तरु- परनहिं प्रान कहाहीं।।
ब्यान व प्रान-अपान-उदाना।
नागइ-कृकल व कूर्म- समाना।।
देवयिदत्त-धनञ्जय प्राना।
दस ई प्रान जगत खलु जाना।।
पंछी दूइ बिटप पर रहहीं।
इस्वर-जीव जगत जे कहहीं।।
नाथ अधार तुमहिं भव तरु कै।
तुमहिं-बिकास-बिनास वही कै।।
दोहा-आबृत तव माया चितइ,खोज सकै नहिं सत्य।
तत्व-ग्यान-ग्यानी पुरुष,कह प्रभु एक अमर्त्य।।
डॉ0 हरिनाथ मिश्र
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