डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


मन-चित लाइ परिच्छित सुनहीं।


जे कछु मुनि सुकदेवइ कहहीं।।


    रोहिनि-नखत व काल सुहाना।


     सुनहु परिच्छित यहिं जग जाना।।


गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।


सांतइ-सौम्य-मुदित सभ रहहीं।।


    रहीं दिसा सभ निरमल-मुदिता।


     तारे रहे स्वच्छ सभ उदिता।।


बड़-बड़ नगर मही के ऊपर।


ग्वालन्ह गाँव छोट जे दूसर।।


    मंगलमय अब सभ कछु भयऊ।


    हीरा-खानि इहाँ जे रहऊ।।


निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।


हरहिं कमल सर खिलि जग-पीरा।।


    बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।


    पंछी-चहक सुनत मन मोहित।।


भन-भन करहिं भ्रमर लतिका पे।


सीतल बहहि पवन वहिठाँ पे।।


   पुनि जरि उठीं अगिनि हवनै कै।


    कंसहिं रहा बुझाइ जिनहिं कै।।


चाहत रहे सबहिं मुनि-संता।


बढ़हिं न कइसउ इहाँ असंता।।


    भए प्रसन्न जानि प्रभु-आवन।


    लगे दुंदुभी सुरन्ह बजावन।।


गावहिं सभ किन्नर-गंधर्बा।


बरनहिं प्रभु-गुन चारन सर्बा।।


    नाचहिं सकल अपछरा मुदिता।


    बिद्याधरियन्ह लइ सँग सहिता।।


सुर-मुनि करहिं सुमन कै बरषा।


होंहिं अनंदित हरषा-हरषा।।


    नीरद जाइ सिंधु के पाहीं।


    गरजहिं मंद-मंद इतराहीं।।


परम निसीथ काल के अवसर।


भए अवतरित कृष्न वहीं पर।।


    पसरा रहा बहुत अँधियारा।


    लीन्ह जनर्दन जब अवतारा।।


जस प्राची दिसि उगै चनरमा।


लइ निज सोरहो कला सुधरमा।।


    गरभ देवकी तें तहँ तैसै।


    बिष्नु-अंस प्रभु प्रकटे वैसै।


दोहा-निरखे बसुदेवइ तुरत,अद्भुत बालक रूप।


         नयन बड़े मृदु कमल इव, हाथहिं चारि अनूप।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446373


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