डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


तब बोलाइ नाथ निज माया।


कल्यानी कहँ स्वयं बताया।।


    कह कल्यानी तें भगवाना।


     ब्रज महँ जाउ न देर लगाना।।


तहँ रह रोहिनि पत्नी नंदा।


गोप-गऊ सँग रहहि अनंदा।।


   जदपि नंद कै पत्नी औरउ।


   कंसहिं भय बस रहँ बहु ठौरउ।।


अहहिं अनंत सेष मम अंसा।


गरभ देवकी कै जदुबंसा।।


    ताहि निकारि तहाँ तें डारउ।


    तुरत रोहिनी गर्भइ धारउ।।


अब मैं तुरत ग्यान-बल-जोगा।


देवकि-गरभ बसब संजोगा।।


    कर प्रबेस कल्यानी तुमहीं।


     जसुमति-गरभ सुता बनि अबहीं।।


तुम्ह समरथ हर बिधि कल्यानी।


मुहँ माँगा बर देवहु दानी।।


धूप-दीप-नैवेद्य-चढ़ावा।


पूजि तुमहिं जग हर सुख पावा।।


     बहु-बहु जगह,बहुत अस्थाना।


     तुमहिं थापि जन पूजिहैं नाना।।


दुर्गा-बिजया-कुमुदा-काली।


कृष्ना-मधवी-माया आली।।


     मातु सारदा औरु अंबिका।


     कन्या कहिहैं तुमहिं चंडिका।।


रहहू तुमहिं बैष्णवी रूपा।


नाम इसानी जगत अनूपा।।


     रही नरयनी तोरा नामा।


      पूजिहैं सभ जन तुम्हरो धामा।।


दोहा-गरभ देवकी खैंचि के,रोहिनि गर्भइ जाइ।


        लीहहिं जन्महिं सेष जब,संकर्षन कहलाइ।।


         रही नाम बलभद्र अपि,औरु नाम बलराम।


         बल-पौरुष जग जानही,संकर्षन बलधाम।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


      


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