डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-37


 


राम-बिचार जानि देवेसा।


चिंतित इंदरपुरी नरेसा।।


    तुरत बुला सुर-गुरुहिं बृहस्पति।


     करउ बिमर्स देव-हित निस्बति।।


राम-भगत-प्रिय, परम सनेही।


पुरवहिं आस असंभव भलही।।


     राम लवटि जदि गए अवधपुर।


     करिहैं नास पिसाच अमरपुर।।


सोचहु कछु उपाय गुरु मोरे।


नहिं अब अधिक समय बहु थोरे।।


     तब समुझाइ बृहस्पति बोले।


     प्रभु सर्बग्य समर्थ न भोले।।


प्रभु जानहिं सभकर दुख-दारुन।


जस हो उचित करहिं दुख हारुन।।


     राम-जनम यहि कारन भयऊ।


     पाप-मुक्त महि सभ सुख पयऊ।।


यहिं तें सबहिं करउ एतबारा।


होंहिं न अहित राम रखवारा।।


     राम समुझि गे इन्द्रहिं मरमा।


     निज मन कहेउ न होहि अधरमा।।


हर बिधि मोर धरम उपकारू।


हरपल-हरदिन,साँझ-सकारू।।


     जदपि भरत मम परम सनेही।


     जनहित काजु करै बड़ नेही।।


नाहिं कठोर-अबुध-अग्यानूँ।


प्रखर-प्रबीन-गुनी मैं जानूँ।।


     भरत-चरित कछु बरनि न जाए।


     जनप्रिय भरत-चरित अति भाए।।


दोहा-भरत-चरित जनु जलधि-जल,सकल रतन कै खान।


         बिनय-सील-गरिमा निहित,कर्मठ-धीर-प्रधान ।।


        प्रबल भरत-प्रभु-प्रेम लखि,बहुरि उठे मुनिनाथ।


       सभा मध्य कह भरत सन,निज तप-बल लइ साथ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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