डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


भगिनी अहहि देवकी मोरी।


बध-अपकीरति बहु नहिं थोरी।।


     जे जग करै स्वजन अपमाना।


     भगिनी-बध ऊ जस नहिं पाना।।


करम क्रूरता कै जे करई।


संपति-उमिरि तासु बड़ घटई।।


    निंदहिं बाद मृत्यु सभ लोंगा।


     रौ-रौ नरक पाइ ऊ भोगा।।


अस सुबिचार कंस मन आवा।


जब प्रभु अंस गरभ लखि पावा।।


    चलत-फिरत अरु सोवत-जागत।


   बइठत-उठत व पीवत-खावत।।


जनम प्रतिच्छारत रह कंसा।


अइहैं जबहिं किसुन जदुबंसा।।


     इत-उत लखै लखै चहुँ ओरा।


     जहँ देखै तहँ किसुनहिं छोरा।।


सकल बिस्व महँ किसुन-कन्हाई।


जल-थल-नभ मा किसुनहिं पाई।।


    सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


     आए ब्रह्मा देवन्ह लेवा ।।


बंदीगृह मा नारद लइ के।


सकल अनुचरहिं साथे धयि के।।


    स्तुति करन लगे सभ साथहिं।


    मधुर बचन नवाय निज माथहिं।।


सत संकल्प नाथ तुम्ह आहीं।


सत्यहिं साधन तुमहीं पाहीं।।


   सृष्टिहिं पूर्ब प्रलय के पाछे।


    स्थित जगत असत नहिं आछे।।


तुम्ह प्रभु सत्य मात्र जग एका।


जदपि जगत कै रूप अनेका।।


     जल-थल-तेजहि-बायु-अकासा।


     अहहिं पाँच सच जग कै आसा।।


इन्हकर कारन तुमहीं नाथा।


तुमहिं सतत रह इनके साथा।।


    नाथ तुमहिं परमारथ रूपा।


    दृस्यमान जग सकल अनूपा।।


दोहा-तुम्ह समदरसी नाथ हौ,परमारथ कै रूप।


        दाता-दानी तुमहिं प्रभु,सक्ती परम अनूप।।


               


डॉ0हरि नाथ मिश्र


               


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