डॉ0 हरिनाथ मिश्र

गरआदमी 


गर आदमी न होता एहसान फ़रामोश,


 माना इसे न जाता जल्लाद कभी का।।


         गर जानती ये दुनिया क्या फ़र्ज़-ए-इंसान?


         होता लहू न इतना बरबाद सभी का ।।


                                    गर आदमी न होता....


ऋतु में,हवा ,फ़ज़ा में होता अगर वजूद,


होता चमन यक़ीनन आबाद कभी का।।


                             गर आदमी न होता....


       होता अगर जो मेल कभी तल्ख़ -मधुर का


       यक़ीनन ये तल्ख़ होता मधुर स्वाद कभी का।।


                               गर आदमी न होता....


होता अगर निशंक ज़माने में कोई यहाँ,


यक़ीनन,वतन ये होता आज़ाद कभी का।।


                    गर आदमी न होता....


होता नहीं गर धर्म का उन्माद जहाँ में।


तो मिलता इसे भी जन्नती प्रसाद कभी का।।


गर आदमी न होता.....।।


   © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


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