गरआदमी
गर आदमी न होता एहसान फ़रामोश,
माना इसे न जाता जल्लाद कभी का।।
गर जानती ये दुनिया क्या फ़र्ज़-ए-इंसान?
होता लहू न इतना बरबाद सभी का ।।
गर आदमी न होता....
ऋतु में,हवा ,फ़ज़ा में होता अगर वजूद,
होता चमन यक़ीनन आबाद कभी का।।
गर आदमी न होता....
होता अगर जो मेल कभी तल्ख़ -मधुर का
यक़ीनन ये तल्ख़ होता मधुर स्वाद कभी का।।
गर आदमी न होता....
होता अगर निशंक ज़माने में कोई यहाँ,
यक़ीनन,वतन ये होता आज़ाद कभी का।।
गर आदमी न होता....
होता नहीं गर धर्म का उन्माद जहाँ में।
तो मिलता इसे भी जन्नती प्रसाद कभी का।।
गर आदमी न होता.....।।
© डॉ0 हरिनाथ मिश्र
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