डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-34


 


देखन चले सभें गिरि-सोभा।


पाछे छाँड़ि बिषादइ छोभा।।


    कामद गिरि, मंदाकिनि-तीरा।


    बन-धन प्रचुर,बायु अरु नीरा।।


बनबासिन मिलि हर्षित भवहीं।


जनु सभ रंक प्रचुर धन पवहीं।।


    कोल-किरातइ, भील-निषादू।


    रामहिं पा भे बिगत बिषादू।।


कंद-मूल-फल बिबिध प्रकारा।


तिन्हकर इहवयि रहा अहारा।।


    जब तें राम इनहिं सँग रहहीं।


    ते सभ रामराज-सुख लहहीं।।


कहुँ कूजति कोइल मृदु बैना।


पिव-पिव कहूँ पपीहा रैना।।


    नाचै बन मा मगन मयूरा।


    जंगल मंगल होंवहिं पूरा।।


सूकर-ससक, हिरन-मृग छौना।


उछरैं अस जस पाइ खिलौना।।


    हिंसक जीव अहिंसक सँगहीं।


    रामराज साथहिं सुख लहहीं।।


सिंह-गर्जना,गज-चिघ्घाड़ा।


तड़ित-तड़क जनु बजै नगाड़ा।।


    झर-झर झरै झरन गिरि-तीरा।


    सन-सन बहै सुगंध समीरा।।


बन महँ जहँ पुरबासी गयऊ।


बनबासी तिन्ह सेवा करऊ।।


    कंद-मूल-फल भरि-भरि दोना।


   तिनहिं खियावहिं दइ जनु सोना।।


हर्षित हिय सभ बन मा रहहीं।


निरखहिं जीव-जंतु बन चरहीं।।


दोहा-रामसरन मा आइके,प्रमुदित कोल-किरात।


         निसि-दिन पावहिं राम-सुख,सम्यक रोग-निजात।।


                         डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          


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