द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-34
देखन चले सभें गिरि-सोभा।
पाछे छाँड़ि बिषादइ छोभा।।
कामद गिरि, मंदाकिनि-तीरा।
बन-धन प्रचुर,बायु अरु नीरा।।
बनबासिन मिलि हर्षित भवहीं।
जनु सभ रंक प्रचुर धन पवहीं।।
कोल-किरातइ, भील-निषादू।
रामहिं पा भे बिगत बिषादू।।
कंद-मूल-फल बिबिध प्रकारा।
तिन्हकर इहवयि रहा अहारा।।
जब तें राम इनहिं सँग रहहीं।
ते सभ रामराज-सुख लहहीं।।
कहुँ कूजति कोइल मृदु बैना।
पिव-पिव कहूँ पपीहा रैना।।
नाचै बन मा मगन मयूरा।
जंगल मंगल होंवहिं पूरा।।
सूकर-ससक, हिरन-मृग छौना।
उछरैं अस जस पाइ खिलौना।।
हिंसक जीव अहिंसक सँगहीं।
रामराज साथहिं सुख लहहीं।।
सिंह-गर्जना,गज-चिघ्घाड़ा।
तड़ित-तड़क जनु बजै नगाड़ा।।
झर-झर झरै झरन गिरि-तीरा।
सन-सन बहै सुगंध समीरा।।
बन महँ जहँ पुरबासी गयऊ।
बनबासी तिन्ह सेवा करऊ।।
कंद-मूल-फल भरि-भरि दोना।
तिनहिं खियावहिं दइ जनु सोना।।
हर्षित हिय सभ बन मा रहहीं।
निरखहिं जीव-जंतु बन चरहीं।।
दोहा-रामसरन मा आइके,प्रमुदित कोल-किरात।
निसि-दिन पावहिं राम-सुख,सम्यक रोग-निजात।।
डॉ0 हरिनाथ मिश्र
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