द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-33
सुनि पितु-मरन लखन-रघुनाथा।
सीय सहित सोचहिं धयि माथा।।
झर-झर बहै दृगन तें आँसू।
प्रभु-गति लखि सभ भए उदासू।।
सीय-लखन-गति बरनि न जाए।
जस हिमपात सस्य मुरुझाए।।
मातुन्ह सजल भए सभ नैना।
रुधित कंठ नहिं निकसै बैना।।
तब बसिष्ठ गुरु आयो उहवाँ।
छाय रहा बिषाद बहु जहवाँ।।
कह रामहिं तुम्ह जानउ बिधिना।
मिथ्या जगत बिरंचिहिं रचना।।
तुमहिं राम सर्बग्य गियानी।
सत्य-असत्य तुमहिं पहिचानी।।
कब का होहि राम तुम्ह जानहि।
काल गर्भ तव आयसु धारहि।।
धरि हिय धीर उठहु रघुबीरा।
मेटहु तुरत सबहिं कै पीरा।।
सुनि गुरु-बचन उठे रघुनाथा।
कर जोरे अवनत निज माथा।
निजकुल सँग तब करि असनाना।
कियो कर्म सभ पितु बिधि नाना।।
गुरु बसिष्ठ जस आयसु देवहीं।
निज पितु श्राद्ध राम वस करहीं।।
श्राद्ध बाद जब दुइ दिन बीता।
राम कहे तब गुरुहिं सभीता।।
अवधपुरी अब सूनी होई।
नाथ उहाँ पितु सुरपुर सोई।।
कैइसे चलै राज कै काजा।
आए भरतहिं सकल समाजा।।
कंद-मूल-फल सबहिं न भाए।
बन-यापन नहिं सबहिं सुहाए।।
नाथ मोर बस इहइ निवेदन।
पुरी जाहु सभ छाँड़ि तुरत बन।।
अवधपुरी कै होय अकाजा।
कैइसे चलै राज बिनु राजा।।
सभ समुझाइ जाहु मुनि नाथा।
कासे कहहुँ नाथ निज गाथा।।
तुम्ह जानउ सभ बातिन्ह नीका।
करउ नाथ भरतहिं कै टीका।।
सोरठा-सुनि रघुबर कै बात,भए बिकल पुरबासिहीं।
मन न अबहिं आघात,कामद-गिरि-सोभा निरखि।।
डॉ0 हरिनाथ मिश्र
काल गर्भ तव आयसु धारहि।।
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