डॉ0 हरिनाथ मिश्र

पंखुड़ी 


देख कर पंखुड़ी तरु-शिखा पर,


मन में क़ुदरत के प्रति प्रेम जागा।


भ्रम मेरे मन में जो पल रहा था-


तज के संसय तुरत मन से भागा।।


         आ गया अब समझ में मेरी,


         कि क़ुदरत की क्या है पहेली?


         सरिता की धारा-तरंगें-


         ज़िंदगी की हैं सच्ची सहेली।


        बोली-भाषा समझने लगा हूँ-


       तरु पे बैठा क्या कहता है कागा??तज के संसय....।।पर्वतों से उतरता ये झरना,


नृत्य-सङ्गीत की दास्ताँ है।


खुशबू-ए-ग़ुल जो पसरी यहाँ-


जान लो,नेक दिल गुलसिताँ है।


होले-होले ये बहती हवा भी-


कातती रहती जीवन का धागा।।तज के संसय.....।।


     बोली कोयल की मीठी सुहानी,


    रट पपीहा की पिव-पिव कहानी।


      बाग़ में गुनगुनाते जो भँवरे-


      उनमें सरगम की अद्भुत रवानी।


      पंछियों की चहक जो न समझे-


      उससे बढ़कर न कोई अभागा।।तज के संसय......।।


दौलते ज़िंदगी है प्रकृति जान लो,


बस ख़ुदा की नियामत इसे मान लो।


इबादत प्रकृति की,यही धर्म है-


इसकी सुरक्षा का ब्रत ठान लो।


मंदिर-मस्ज़िद यही तेरा गुरुद्वारा है-


प्रेमी क़ुदरत का होता सुभागा।।तज के संसय....।।


      चहक औ महक जो सुलभ है यहाँ,


      जल की धारा प्रवाहित तरल है यहाँ।


     खाते-पीते-उछलते सभी जंतु हैं-


     सबके जीवन में लय-ताल रहती यहाँ।


     प्रकृति की अमानत हैं वन-वृक्ष अपने-


     धन्य, इनसे जो अनुराग लागा।।तज के संसय......।।


प्रीति की रीति हमको सिखाते यही,


और हमको बताते डगर जो सही।। 


नेह जल से,पवन से,अगन से जो है-


वन्य प्राणी सिखाते हैं हमको वही।


सो रहा था हमारा जो मन आज तक-


ऐसी बातों के प्रति अब है जागा।।तज के संसय.....।।


           © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


             


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