डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-35


 


निसि-दिन सिय सासुहिं सभ सेवहिं।


असिष सुहाग आँचरहिं लेवहिं।।


    कपटी-कुटिल कैकई सोचैं।


    अनभल सूल हृदय तिसु कोचैं।।


देखि राम-सिय-लखन सुभाऊ।


कैकेई रहि-रहि पछिताऊ।।


   बड़ अधर्म हमतें ई भयऊ।


   राम-लखन-सिय बन मा पठऊ।।


सीय-सुश्रुषा सासु अघाईं।


पाद चापु सिय देहिं ओघाईं।।


    लखिअस अनुपम मिलन सबहिं कै।


    मुदित होंहिं सुर-दसरथ नभ कै।।


सबके मन मा संसय भयऊ।


राम लौटि पुर अयउ न अयऊ।।


    निज-निज सोचि देहिं पुरवासी।


    राजा बनइँ राम बनवासी।।


कस होवै रामहिं अभिषेकू।


सोचहिं भरत उपाय अनेकू।।


    केहि बिधि चलैं अवध रघुराया।


     पर सूझै नहिं कोउ उपाया।।


दिवस भूखि नहिं नीदहिं रैना।


सोचि-सोचि नित भरत बेचैना।।


   गुरु बसिष्ठ तब सबहिं बुलाए।


    केहि बिधि राम चलहिं समुझाए।।


राम कृपालू,परम दयालू।


सकल बिस्व रामहिं परिपालू।।


   रामहिं अखिल जगत कै स्वामी।


    बड़ भागी जे प्रभु-पद-गामी।।


बिधि-बिधान-गति रामहिं समुझहिं।


प्रीति-भगति-बिस्वासहिं रीझहिं।।


   दिग-दिगंत-दिग्पाल समेता।


  जोगी-ऋषि-मुनि-संत चहेता।।


आगम-निगम-बेद-सर्वग्या।


चंद्र-सूर्य चमकहिं प्रभु-अग्या।।


    सलिल-अनल-महि-पवन-अकासा।


   प्रभु बिनु जगत न होय प्रकासा।।


प्रभु जस चहिहैं उहवइ होई।


तर्क-कुतर्क ब्यर्थ जग खोई।।


    सुनहु भरत हम अबहिं बिचारे।


     बन-प्रवास लउ कान्हें सारे।।


सत्रु-तुमहिं बन करउ निवासू।


अस कहु प्रभुहीं बिनू उदासू।।


सोरठा-गुरुहिं बसिष्ठ बिचार,जानि भरत प्रमुदित भए।


           कहहिं इ भागि हमार,जौं प्रभु मानहिं गुरु-बचन।।


           कहहु जाइ मुनिनाथ,हमरो मत बस इहहि अह।


           मनिहैं अब रघुनाथ,जे कछु मुनिवर अब कहहिं।।


                      डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       


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