दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
माया लइ आयसु भगवाना।
पृथ्बी-लोकहि किया पयाना।।
देवकि-गरभ खैंचि कल्यानी।
उदर रोहिनी रखा भवानी।।
पुरवासी बड़ चिंतित भयऊ।
देवकि-गरभ नष्ट जे रहऊ।।
भगतन्ह अभय करहिं भगवाना।
हर बिधि नाथ करैं कल्याना।।
सकल कला सँग प्रबिसे नाथा।
मन बसुदेवहिं लइ निज गाथा।।
रबि इव चमकि उठे बसुदेवा।
भगवत ज्योति-तेज जे लेवा।।
बल-बुधि-बानी अतुल प्रभावा।
स्वयं प्रभू के बासू पावा ।।
अरपेयु बासू प्रभु कै अंसा।
देवकि-गरभ कृष्न जदुबंसा।।
प्राची दिसा चंद्र जस धारै।
गरभ देवकी अंस सम्हारै।।
जे प्रभु सकल लोक कै बासा।
बनी देवकी तासु निवासा।।
जस खल ग्यान-प्रकास न बाढ़इ।
जस घट दीप-जोति रह ठाढ़इ।।
वस नहिं बाढ़ै आभा-जोती।
जेलहि कंस देवकी सोती।।
देवकि-मुख-मंडल-मुस्काना।
प्रभु-आभा कंसइ पहिचाना।।
कहा मनहिंमन चिंतित कंसा।
जनु ई अहहि बिष्नु कै अंसा।।
यहि तें बंदीगृह उजियारा।
अब नहिं रहहि इहाँ अँधियारा।।
अवा देवकी गर्भहिं अंदर।
ग्राहक प्रानहिं मोर भयंकर।।
लगा सोचने बिबिध उपाया।
पर नहिं तासु बुद्धि कछु आया।।
सोरठा-लगा सोचने कंस, बचै प्रान अब मोर कस।
गर्भहिं बिसनू अंस,बधइ देवकी नहिं उचित।।
मिले अपजसहिं मोंहि,नारि गर्भिनी जदि बधहुँ।
नाम कलंकी होंहि,स्वारथ बस जदि बध करहुँ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
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