डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


माया अहहि असत्य अधारा।


प्रभू जगत सभ जगह पधारा।।


    प्रभू एक कह तत्वहिं ग्यानी।


    रूप अनेक कहहिं अग्यानी।।


प्रभू आतमा ग्यानहिं रूपा।


जग आवहिं धरि रूप अनूपा।।


    सकल चराचर-जग-कल्याना।


    बिबिध रूप प्रभु आना-जाना।।


रहइ एक जुग अरु जुग दूसर।


रूप अनेक एक प्रभु ऊपर।।


    दुष्ट-दलन करि संतन्ह-सेवहिं।


    अद्भुत सुख प्रभु सभ जन देवहिं।।


तुरत पार भव-सिंधु अपारा।


गोखुर इव लइ प्रभू-सहारा।।


    भगत-हितैषी,जग-कल्यानी।


     प्रेमी-भगत सकल जग जानी।।


प्रभू-कृपा सत्पुरुषहिं पावैं।


नाथ अनुग्रह तिनहिं लुटावैं।।


   भगति क भावहीन जन लोका।


    झूठहिं कह पाए परलोका।।


मूरख-बुद्धिहीन नहिं जानै।


माया सतत बँधा नहिं मानै।।


   जदपि कि ऊँचे पद आसीना।


   भगति हीन नर गिरै मलीना।।


पर जाकर पद-पंकज प्रीती।


गिरै न ऊ नर रखु परतीती।।


दोहा-जग-रच्छक,सुख-धाम प्रभु,करैं सदा कल्यान।


        दानी औरु कृपालु प्रभु,सभ जन लखहिं समान।।


                        डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          9919446372


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