दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6
माया अहहि असत्य अधारा।
प्रभू जगत सभ जगह पधारा।।
प्रभू एक कह तत्वहिं ग्यानी।
रूप अनेक कहहिं अग्यानी।।
प्रभू आतमा ग्यानहिं रूपा।
जग आवहिं धरि रूप अनूपा।।
सकल चराचर-जग-कल्याना।
बिबिध रूप प्रभु आना-जाना।।
रहइ एक जुग अरु जुग दूसर।
रूप अनेक एक प्रभु ऊपर।।
दुष्ट-दलन करि संतन्ह-सेवहिं।
अद्भुत सुख प्रभु सभ जन देवहिं।।
तुरत पार भव-सिंधु अपारा।
गोखुर इव लइ प्रभू-सहारा।।
भगत-हितैषी,जग-कल्यानी।
प्रेमी-भगत सकल जग जानी।।
प्रभू-कृपा सत्पुरुषहिं पावैं।
नाथ अनुग्रह तिनहिं लुटावैं।।
भगति क भावहीन जन लोका।
झूठहिं कह पाए परलोका।।
मूरख-बुद्धिहीन नहिं जानै।
माया सतत बँधा नहिं मानै।।
जदपि कि ऊँचे पद आसीना।
भगति हीन नर गिरै मलीना।।
पर जाकर पद-पंकज प्रीती।
गिरै न ऊ नर रखु परतीती।।
दोहा-जग-रच्छक,सुख-धाम प्रभु,करैं सदा कल्यान।
दानी औरु कृपालु प्रभु,सभ जन लखहिं समान।।
डॉ0 हरिनाथ मिश्र
9919446372
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