हाथ-पाँव ढीले हुए,हुआ शिथिल जब गात।
तन-मन निष्क्रिय देखकर, देता सुत आघात।।
जिन हाथों की अँगुलियाँ,पकड़ चला जो आज।
पानी देना दूर कल,सुने न वह आवाज़ ।।
समझ बोझ पितु-मातु को,वृद्धाश्रम में डाल।
मुक्त मातु-पितु से उसे,मिलता सुख तत्काल।।
वृद्धाश्रम में वृद्ध-जन,यद्यपि पाते तोष।
पर तज निज गृह-स्वजन को,रखते मन में रोष।।
जिसे बनाया था स्वयं,छोड़ वही घर-द्वार।
वृद्धाश्रम में आ बसे,सुत,तुमको धिक्कार।।
भिन्न-भिन्न परिवेश के,वृद्धाश्रम में लोग।
रहें यहाँ परिवार सम,मिल-जुल कर सहयोग।।
अंत समय में दे शरण,आश्रम ही भरपूर।
जिन्हें छोड़ परिजन गए,और देश को दूर।।
© डॉ0 हरिनाथ मिश्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें