द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-39
धीरज-धरम-धुरंधर भ्राता।
परम भागि मों दियो बिधाता।।
जागै स्वयं जगत जब सोवै।
निष्ठावान भरत बस होवै।।
ज्येष्ठ भ्रातृ-भारहिं जे गहही।
भ्राता उहहि भरत सम रहही।।
जेहि पे कृपा करहिं जगदीसा।
रंक भवहि तुरतै अवनीसा।।
सुनहु भरत त्यागहु सभ सोका।
भरम-पाप तजि होहु असोका।।
कछु नहिं दोषु मातु कैकेई।
बिधिना करनि मातु कस लेई।।
मम बन-गमन,पिता सुरपुरहीं।
बिधि-बिधान टारे नहिं टरहीं।।
जे कछु करम-भागि लइ आवै।
सिर तेहि धारि जगत सुख पावै।।
तव मति-बुधि-बिबेक जग माहीं।
ग्यानी-ध्यानी सभें सराहीं।।
आस्था फलति जगत चहुँ-ओरा।
देइ प्रान पषान कठोरा।।
निर्मम-निठुर-घात-प्रतिघाता।
पावै फल जस रचा बिधाता।।
यहि मा दोषु न तोरउ-मोरा।
नहीं पिता,नहिं मातुहिं छोरा।।
यहि सभ काल करै जग माहीं।
सबहिं नचावै ऊ जस चाहीं।।
लेइ सभें तुम्ह जाउ अवधपुर।
करउ राज तहँ धीरज धरि उर।।
करउ राज पितु-बचन निबाहू।
बन-प्रवास मम धरम, न काहू।।
जनक-दूत तेहि अवसर अयऊ।
सीता जिनहिं तुरत तहँ पठऊ।।
प्रभुहिं नमन करि तब ते कहहीं।
मिथिलापति दल-बल सँग अवहीं।।
सुनि बन-गमन राम अरु सीता।
लखन समेत जानि भयभीता।।
पिता-मरन अरु भरत-आगमन।
चिंताग्रस्त मातु हिय-चित-मन।।
साजि समाजु जनक नृप आए।
सीय-जननि अपि निज सँग लाए।।
अवधपुरी मिथिला रखवारू।
बिधिवत रखि मिथिलेस पधारू।।
दोहा-जनक-आगमन सुनि सभें,हर्षित चित-मन-गात।
अस छबि कै बरनन करत,सबद उदर न अघात।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें