डॉ0 हरिनाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


चक्रइ-गदा-संख अरु कमलहिं।


पकरे रहा करहिं महँ सकलहिं।।


   बिरजि रहा बच्छस्थल ऊपर।


   कनक-रेख सिरिबत्स चिन्हकर।।


गर महँ कुस्तुभ मनि रह हिल-मिल।


घन इव गात पितंबर झिल-मिल।।


   भानु-किरन इव कुंचित केसा।


    लखि अस बालक पितु-हिय हुलसा।।


मनि सँग जड़ित मुकुट अरु कुंडल।


लखतै होवै परम सुमंगल ।।


    कमर- करधनी चमचम चमकै।


    बाजूबंद बाँह मा दमकै ।।


अनुपम छटा सुसोभित बालक।


भवा अवतरित असुरन्ह घालक।।


    भयो अचंभित पितु बसुदेवा।


    बालक रूप जनम प्रभु लेवा।।


जानि रहसि अस भे बहु मुदिता।


रोमहिं रोम अनंदहिं खिलिता।।


     कृष्न-जनम-उत्सव के हेतू।


     मन-प्रसन्न बसुदेव सचेतू।।


कीन्ह सहस दस गो-संकल्पा।


दान द्विजन्ह कहँ जाय न जलपा।।


    कच्छ-सूतिका जगमग भयऊ।


    अनुपम कांति अंग प्रभु रहऊ।।


दोहा-पुरुष महातम कै जनम,जानि मुदित बसुदेव।


         करन लगे स्तुति तुरत,कर जोरे कह देव।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...