डॉ0 हरिनाथ मिश्र

अविनाशी है आत्मा,यही सत्य तुम जान।


बुद्धिमान नर जान यह,धरे न धन का ध्यान।।


 


हृदय वासना में रमे,जब मन में अज्ञान।


कहे सीप को रजत यह,भ्रम बस मन नादान।।


 


उर्मि-स्रोत इस सिंधु इव, मैं उद्गम संसार।


चले कहाँ तुम तज मुझे,दीन-हीन-मतिमार।।


 


शुचि-सुंदर-चैतन्य इस,आत्मा की पहचान।


कर न सकोगे जान यह,इन्द्रिय-सुख-अभिमान।।


 


सभी प्राणियों में स्वयं,स्वयं रहे संसार।


यह रहस्य मुनि जान रख,यदि ममत्व,बेकार।।


 


             © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


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