अविनाशी है आत्मा,यही सत्य तुम जान।
बुद्धिमान नर जान यह,धरे न धन का ध्यान।।
हृदय वासना में रमे,जब मन में अज्ञान।
कहे सीप को रजत यह,भ्रम बस मन नादान।।
उर्मि-स्रोत इस सिंधु इव, मैं उद्गम संसार।
चले कहाँ तुम तज मुझे,दीन-हीन-मतिमार।।
शुचि-सुंदर-चैतन्य इस,आत्मा की पहचान।
कर न सकोगे जान यह,इन्द्रिय-सुख-अभिमान।।
सभी प्राणियों में स्वयं,स्वयं रहे संसार।
यह रहस्य मुनि जान रख,यदि ममत्व,बेकार।।
© डॉ0 हरिनाथ मिश्र
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