डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

विश्व में जगह-जगह बुद्ध की विपश्यना से।


क्या मिला राष्ट्र को पंचशील की स्थापना से। 


 


हम शान्ति ओम् शान्ति का मंत्र बोलते रहे, 


पर सदा विचलित हुए शत्रु की प्रवंचना से। 


 


परतंत्रता की त्रासदी हजार वर्ष झेलकर, 


उबर नहीं सके विश्व बन्धुत्व की कामना से। 


 


दूसरों के आतिथ्य हेतु हम द्वार खोलते रहे, 


पर क्या पता वो शत्रु है ग्रस्त हैै दुर्भावना से। 


 


आज सत्य शान्ति करुणा उदारता को भूल, 


आोत-प्रोत हो गये हैं राष्ट्रीयता की भावना से।


 


अब सतर्क हो गये हैं गगन जल थल में हम, 


शत्रु डर गया है अब युद्ध की सम्भावना से। 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


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