कितना कुण्ठित मानव लगता।
आत्म-प्रदर्शन की व्याकुलता।।
कितनी शोहरत उसे चाहिए?
छिपी हुई है घोर दीनता।।
परेशान है मानव इतना।
घेर चुकी है आज हीनता।।
पाने को सम्मान अपाहिज।
दिखा रहा असफल सक्रियता।।
मन से बौना दिल से कायर।
चाह रहा स्थायी संप्रभुता।।
मन से पिछड़ा बुद्धि अपावन।
दर्शाता अपनी निज शुचिता।।
कब कुण्ठा से मुक्ति मिलेगी?
कब आयेगी मन में मधुता??
आत्मतोष कबतक आयेगा?
कब जागेगी आत्म-तृप्तता??
आत्म-तृप्तता बिना असंभव।
आत्म-प्रदर्शन की अशुद्धता।।
डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी
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