डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

विस्थापन एक त्रासदी


 


चीखें, चिल्लाहटें


   करुण क्रंदन 


जैसे जायज़ शब्दों से


  निकले स्वर भी


इक्कीसवीं सदी की सड़क पर


   प्रजनन स्त्रियों की


  समग्र पीड़ाओं को


न्याय दिलाने के लिए


मुकम्मल साक्ष्य नहीं है


       क्योंकि


किसी स्त्री पर 


नाज़ायज संतति द्वारा हमला


उतना ख़तरनाक नहीं है


जितना उसके पाले स्वप्न को 


      गिद्धों सदृश


 नोंच- नोंच कर भक्षण करना 


   वर्तमान साक्षी है 


  यह बीमारी वैश्विक है


 इसने न जाने कितनों को मारा


     कितनों को तोड़ा


        कितनों के मुंह को कूंचा


        उस सांप की तरह 


     जो छटपटाते हुए 


      दम तोड़ देता है


        घुप्प अंधेरों के 


     भयानक जंगलों से निकलकर


     जो कभी बाहर की रोशनी में 


      पुनः न कभी नहाया हो


     कितनी आशाओं के शलभ


     वापसी की लौ में जर गए


     कितनों के सपने मर गए


     आत्माएं भी दुःखी हैं


      ग्राम- देवताओं के 


   ‌‌ शरीरों को त्यागकर 


    रेल की पटरियों पर


    न‌ जाने कौन सी काली छाया 


   आज जीवित आत्माओं 


      को डरा रही है 


    अपनी बेगुनाही का


    पुख्ता सबूत मांग रही हैं 


    इन छायाओं को 


  इतना डरा हुआ नहीं देखा गया 


 अपने ही नीड़ में आने से


    पखेरू भी घबराए हैं 


    अपना- अपना आशियाना भी आज पराया सा उन्हें लग रहा है


  उनमें जलता हुआ चूल्हा 


   बेगाना सा लग रहा है


धधक रही प्रत्याशा की लकड़ियां


   न जाने कब बुझ जायेंगी 


    शेष ज़िन्दगी की 


अंतिम आशाओं की सूई 


  कब रुक जायेगी


साहब! यह महामारी 


तो जरूर दूर हो जायेगी


लेकिन विस्थापित हुए 


लंगड़े लूलों की ज़िंदगी 


 क्या फिर पटरी पर आ पायेगी ?


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


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