नहीं होती है दीवारें मज़बूत
छल- कपट की
ढह जाती है
सत्य के एक ही प्रभंजन में
खड़ी कर दी थी
अहंकार की बुनियाद पर
फ़ौलादी दीवारें
दशानन ने लंका में
ध्वस्त कर दिया
मर्यादा के भूकंप ने
एक ही झटके में उसे
लंबी नहीं होती है
झूठ की ज़िंदगी
रिघुर- रिघुर कर
जीने लगता है
व्यक्ति इस वातावरण में
नहीं ले पाता है
स्वच्छ और साफ़ हवा
घुटन होने लगती है उसे
बेण्टीलेटर पर चला जाता है
काली छाया बनकर
डराने लगता है ऐसा जीवन
भले ही खड़ा कर दे
अर्थ के वैश्विक- पटल पर
एक विपुल साम्राज्य
जरायम की नींव पर
लेकिन नहीं ले पाता है
चैन की सांसें वहां वह
सर्वहारा की चीखें,
करुण- क्रंदन, काल बनकर
रक्तिम नेत्रों से
डराने लगती हैं
अपराध- बोध
होने लगता है तब उसे
एहसास हो गया था
अंत में सिकंदर को भी
कितनी ज़मीन चाहिए
प्रति व्यक्ति औसतन मूलभूत
आवश्यकताओं के लिए
नहीं होती है दीवारें मज़बूत
छल- कपट की कभी भी !
डॉ० संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874
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