डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 

आज इस‌


 प्रगतिशीलता


‌ के दौर में 


मनुष्य संघर्षशील है ‌


विकसित ‌नहीं 


विकासशील ‌है


 भीतर की बुराइयों 


से‌ लड़ता है


 सौ-सौ बार हारता है


     टूटता है 


खिजलाता है


चीखता है 


लाल- पीला ‌होता है


 रोज़ रोज़ उसे 


कूटता है


पीटता है 


चले जाने को 


कहता है


वह ढींठ है


 निर्लज्ज ‌है


बेहया ‌है 


बिना बुलाया ‌


मेहमान है ‌


न‌ ही उसके भीतर


कोई ईमान ‌है 


अच्छा-खासा पड़ा है


लेकिन मेरी आंखों में 


मिर्चों की तरह गड़ा है


जाने ‌का नाम‌ ही 


नहीं लेता 


वज्र बेहया‌ है 


जितना काटो 


उतना ही बढ़ता है 


काटते-काटते 


थक गया हूं 


जिंदगी से ‌तंग


 आ गया ‌हूं‌ 


 आज मैं 


सुना ‌हूं 


अच्छी तरह ‌गुना हूं 


कि इसकी जड़ें ‌


बहुत गहरी ‌हैं 


यह केवल भारत में


ही नहीं 


संपूर्ण विश्व में ‌


भी जमीं ‌है 


 


 


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 


प्रयागराज फूलपुर


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