मेरे पावन मन की कविता
निकल बहो बन गंगा सरिता।
मेरे पावन मन की कविता।।
कहीं न रुकना बहती जाना।
मेरी मानवता की कविता।।
सारे जग में रच-बस जाना।
बनकर सबके दिल की कविता।।
भूखे-प्यासे का दु :ख हरना।
तप्त जगत को दे शीतलता।।
अपलक देख रहे सब तुझको।
खाओ तरस अब करो मित्रता।।
अक्षर-अक्षर शव्द-शव्द से।
भरना सबमें भाव सहजता।।
भाव प्रधान बने नित बहना।
भागे सबकी हृदय-दीनता।।
हरियाली बन दिखो चतुर्दिक।
जागे सबमें मधु-मादकता।।
मन में सबके बैठ निरन्तर।
बन जाना कान्हा की गीता।।
कदम-कदम पर दिखे विश्व में।
मेरे पावन मन की कविता।।
स्वर्ग उतर आये पृथ्वी पर।
लगे महकने अब मानवता।।
विषमय जीवन से सब उबरें।
स्थापित हो सत शिव सुन्दरता।।
लें अवतार परम प्रिय मानव।
बह जाये बयार नैतिकता।।
कविता रचने का मतलब यह।
जनमानस में भरे स्वच्छता।।
करे प्रहार कंस-रावण पर ।
स्थापित कृष्ण-राम-सभ्यता।।
ऐसा केवल कर सकती है।
मेरे पावन मन की कविता।।
जो नकारती दुष्प्रवृत्ति को।
वह अति उज्ज्वल पावन कविता।।
डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी
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