काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रचना निर्मल दिल्ली

रचना निर्मल


जन्म: 5 अगस्त 1969, पंजाब


शिक्षा: ( राजनीति विज्ञान ) स्नाकोत्तर


रुचि : पठन , पाठन,समाज सेवा


कर्म क्रिया: अध्यापिका , गृहणी, समाजसेवी


प्रेम : सच्चाई देश और प्रकृति से..


प्रिय लेखक : महादेवी वर्मा,सुभद्रा कुमारी चौहान,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद,मीर,राहत इंदौरी


साहित्यिक क्षेत्र: गीत,ग़ज़ल,कविता,छन्द,कहानी लघुकथा इत्यादि


साहित्यिक यात्रा : दो वर्ष


प्रकाशन: विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, विभिन्न विधाओं के साझा संकलनों में रचनाएँ सम्मिलित


उपलब्धियाँ: विभिन्न मंचों द्वारा रचनाओं हेतु समय समय पर पुरस्कृत एवं सम्मानित


गोल्डन बुक्स आफ रिकार्ड में प्रकाशित पुस्तक" हे पवन " में कविता- स्त्री और हवा, लघुकथा -कसूर किसका


,सचिव (महिला काव्य मंच (रजि०) , साहित्य शिखर की राष्ट्रीय सचिव, सोपान साहित्यिक संस्था की कार्यकारिणी सदस्या,आगमन की आजीवन सदस्यता


सम्पर्क: फोन: 9971731824 , 7011594469


ईमेल: rachnabhatia800@gmail.com


 


 


कविता 1


 


सफलता


 


क्या है सफलता


गरीबी से अमीरी की ओर


हार से जीत की यात्रा


 कांटो से फूलों तक की यात्रा 


या….आलिशान घर,बड़ी गाड़ी,


और नौकर चाकर,


खुली आंखों से देखे


सपनों का खुशनुमा अंत।


सफलता एक सीढ़ी है


जिसकी हर निसैनी 


बनती है प्रेरणा, अभिव्यक्ति,


एहसास ,जुनून, उन्माद से ,


जो देती है जीवन को प्रवाह 


पर..महामाया भी है सफलता, 


अहंकार,द्वेष और अवसाद की जननी


विनम्रता और ईर्ष्या से करती है


एक जंग की शुरुआत


आप ही बताइए ..


सही सफलता क्या


मन की खुशी नहीं ?


इन्द्रियों पर विजय नहीं?


जहाँ भौतिक सुखों की 


कोई अहमियत नहीं


असली मायने तो सफलता के 


समन्वय के साथ हर स्थिति में 


 है खुशहाल रहने में , है


कमजोरी को ताकत बनाने में


अपने बदलाव तय करने में 


सफलता घटना नहीं जो


घट जाएगी,..


वस्तु भी नहीं कि मिल जाएगी


सफलता तो परिणाम है


हमारी सोच का,जो तय करती है


लक्ष्य और उसके प्रति..


समर्पण , और देती है शांति


आंतरिक विकास


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


कविता 2


 


परीक्षा


 


परीक्षा से 


डरना मेरी फितरत नहीं


मैं स्त्री हूँ


मेरा तो जीवन ही परीक्षा है


जन्म पाने से जन्म देने की


अपनी जीत को हराने की


तुम्हारी हार पर विश्वास की


ज़ुल्म चुपचाप सहने की


 तुम्हें क्षमा करने की


अश़्क पी कर मुस्कुराने की


अंजान रिश्ते में बँधने की


अपने भरोसे की


मैंने तो अग्नि परीक्षा तक दी है


और तो और..


कटे परों से आसमान छुआ है


तुम केवल घर चलाने की परीक्षा देते हो


हाँ .. उत्तीर्ण भी हो ही जाते हो


पर कभी सोचा है..


अगर मैं घर बनाने की परीक्षा में फेल हो जाऊं


मैं रिश्तों में बँध ही न पाऊँ


तुम्हें क्षमा न करूं


हाँ


जन्म ही न दूँ


तो तुम्हारी परीक्षा का क्या मोल रहेगा


किताबी ज्ञान कितना काम आयेगा


चलो एक काम करते हैं


परीक्षा तुम्हारी लेते हैं


तुम्हारी वफ़ा की परीक्षा


मुझे क्वाल्टी समय देने की परीक्षा


मुझे सम्मान देने की परीक्षा


मुझे भोग्य नहीं योग्य समझने की


मेरे सपनों को साकार करने की परीक्षा


मुझे…


मैं रहने देने की परीक्षा


क्या..


दे पाओगे..


बोलो कुछ तो बोलो


यूँ न हारो


परीक्षण स्थल तक तो चलो


डरो नहीं


मेरा भरोसा तुम्हें हारने न देगा


आखिर..


तुम्हारी इसी जीत में


मेरी जीत भी छिपी है


...


हमारी जीत छिपी है


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


3


 


इज़हार या इंकार


 


तुम्हारा इज़हार


मेरा इंकार


नतीजा


तेजाब से वार


क्या यही है प्यार


चलो मान ली गलती


थी मेरी नसमझी


अब मैं करती हूं इज़हार


आओ कर लो प्यार


क्या हुआ..


क्या प्यार नहीं रहा


या जिस्म वो नहीं रहा


सुनो..


लक्ष्मी थी,लक्ष्मी हूं


और.. लक्ष्मी रहूंगी


बढ़ूगी आगे


अब..


बेधड़क,


इसी चेहरे के साथ


 


स्वरचित


रचना निर्मल


दिल्ली


 


 


4


 


आशा


 


हर सुबह..


चाहत की बाती ले 


विश्वास के तेल से 


मन के मंदिर में 


जलता है रोज़ 


आशा का दीप 


जरूरत के साथ 


दिखाने नये रास्ते 


सूरज की तरह 


और रोज़…


जरूरत के लिये


जलती हैं चाहत


डगमगाता है विश्वास 


सूरज के साथ साथ 


हर शाम..


थक जाती है आशा 


पसर जाती है निराशा 


अंधियारी रात में 


बुझने लगता है 


दीप आशा का 


मगर…


सपने तो अपने हैं 


सहारा देते हैं लौ को 


छूटने नहीं देते 


हाथ आशा का 


नींद के झोंकों में 


प्यार से करते हैं 


तैयार एक और 


नई आशा का दीप 


अगली सुबह के लिए 


 


स्वरचित 


रचना 


दिल्ली


 


5


 


कौन हो तुम


 


 


भारत माँ आज 


हमसे पूछ रही है


कौन हो तुम


आखिर कौन हो तुम


किसके मोहरे हो ?


क्या केवल भीड़ हो । उन्माद हो


या वोटबैंक की कठपुतली हो


आखिर कौन हो तुम


जानते हो…?


 


तुम मात्र शोर नहीं हो


 विभाजित करने वाला मतभेद नहीं हो


सांप्रदायिकता का दानव भी नहीं हो


असंवेदनशील तो बिल्कुल नहीं हो


तुम तो संजीदा विचारों के सारथी हो,


संगीत हो


सुरों में सामंजस्य करना जानते हो


मूल रंगों से बने अनगिनत रंग हो


खुशबू फैलाते फूलों की क्यारी हो


तुम..


राष्ट्रीय एकता का संबल हो


संवाद हो


सत्य का बोध हो


जागो…


अब तो जागो


अज्ञान से ,अधर्म से जागो


मोह से


अहंकार से जागो


स्वयं को पहचानो


मानवीय मूल्यों को जानो


गंगा जमुनी तहज़ीब को मानो


अब तुम्हें उठना होगा


क्योंकि


अलगाववाद का जाना अभी शेष है


राष्ट्र में समूह चेतना का आना अभी शेष है


अंधकार को भगाना अभी शेष है


मानवता का सूर्योदय होना अभी शेष है


तुम्हें उठना ही होगा


 बहुत कुछ होना अभी शेष है


 


स्वरचित



 


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