लवी सिंह बरेली

स्त्री विमर्श पर नारी शशक्तिकरण की कालजयी कविता


"तुम कब तक मुझको रोकोगे''


 


मैं खुले गगन की चिड़िया हूँ, पंख पसार उड़ जाऊंगी।


तुम कब तक मुझको रोकोगे


आखिर तुम कब तक रोकोगे


 


कोई शीशा नहीं हूँ मैं जो ठेस लगने पर बिखर जाऊंगी, 


लाख चोटें खाने पर भी मैं यूँ ही मुस्कुराउंगी,


तुम और कितने इम्तहान मेरी जिंदगी से अब लोगे


मैं एक दिन जीत जाऊंगी.....तुम कब तक मुझको रोकोगे...


अखिर तुम कब तक रोकोगे।


 


स्त्री होने पर कोई पाप नहीं किया मैंने,जो घूँघट में छिप जाऊंगी


अस्तित्त्व है मेरा भी,मैं भी अपनी पहचान बनाऊंगी


ये धर्म-जाति के बंधन में तुम कब तक मुझको झोंकोगे


मैं नया समाज बनाऊंगी...तुम कब तक मुझको रोकोगे....


आखिर तुम कब तक रोकोगे।


 


तपते सहरा में मैं साया बन जाऊंगी,


राहों के अंधेरे का मैं उजाला बन जाऊंगी,


बहन,बेटी,पत्नी,माँ स्त्री का हर रूप मैं निभाउंगी


फिर भी अगर तुम पुरुषत्व मुझ पर थोपोगे


तो नारी सशक्तिकरण की मैं मिसाल बन जाऊंगी...तुम कब तक मुझको रोकोगे...


आखिर तुम कब तक रोकोगे।


 


मैं खुले गगन की चिड़िया हूँ पंख पसार उड़ जाऊंगी.....तुम कब तक मुझको रोकोगे,


तुम कब तक मुझको रोकोगे...


आखिर तुम कब तक रोकोगे।


 


लवी सिंह बहेड़ी बरेली उत्तर प्रदेश


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