निशा अतुल्य

बिंदिया 


छूट जाएं कुछ पूर्वाग्रह 


बिखर जाएं कुछ थोपे हुए चिन्ह


जो गुलामी के से लगते हो 


तब जो बिंदिया चमकेगी 


तेजस्वनी होगी वो 


सूर्य की तरह निखरेगी ।


सूर्य छूप जाता है 


समय पर अपने


बिंदिया की चमक


हर पल बिखरेगी।


कभी बन चाँद देगी शीतलता


कभी प्रखर सूरज सी निखरेगी


जब हो जाएगा खत्म भेद 


स्त्री पुरुष का समाज से ,


सच मानो 


उस दिन स्त्री के भाल पर


एक ऐसी बिंदिया चमकेगी 


जो घर ही नही 


जग सारा रोशन करेगी ,


क्योंकि वो उसके 


अंतःकरण से उपजेगी


किसी विवशता की शिकार नहीं होगी । 


उन्नत भाल 


स्वतंत्र विचार 


समानता के कदम


भरता विश्वास 


बनाएंगे एक नया समाज 


जिसमें स्त्री शृंगार 


उसके अपने होंगे 


बंधनो में बंधे नही 


कोई नही पौंछ सके 


जहाँ 


उसकी चमकती बिंदिया


या आँखों का काजल ।


आज खंडित करती स्वयं को


करती तिरस्कार 


हर शृंगार का नारी 


क्यों 


स्वयं ही


थक गई है बंधनो का 


बेमानी बोझ ढोते ढोते


चाहती है उतार फेंकना 


अपने ही आपसे ।


अपनाएगी स्वयं से ही


अपने आत्मविश्वास को


बिंदी, चूड़ी, कजरा, गजरा 


किसी के नाम का नहीं


सजायेगी स्वयं के मनोभाव को ।


तब जो बिंदिया चमकेगी


उन्नत भाल पर


जगमगाएगी सकल संसार पर 


जैसे क्षितिज में उदय होता 


सूरज


कर देता है सिंदूरी पूरे आकाश को ।


 


निशा अतुल्य


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