निशा अतुल्य

चीर सीने को धरा के 


श्रृंगार सारा नोंच कर 


खड़े करें पत्थर के जंगल


हाल सब बे-हाल हैं ।


देखने को छोटी गौरैया 


नैन भी तरसे मेरे 


बाग तो सब ख़त्म हैं अब


कोकिल की कहाँ कुहुक हैं।


शीतल पवन का रुख है बदला


और सर्द मौसम कहाँ 


मेघ भी झंकार कर 


नृतन अब करते नहीं ।


दामिनी की चमक अब 


मुझको डराती नहीं 


ढूंढती हूँ छाँव मन की


जो कहीं मिलती नहीं ।


चल उठ मुसाफिर 


सोच कुछ,कदम आगे बढ़ा


न चले जो साथ कोई तेरे 


तू अकेला ही चला ।


नही कोई काम मुश्किल


मन में जो तू ठान ले


वृक्ष चल लगाए हम 


किनारे किनारे सड़क के।


मिल जाये जहाँ सूखी कोई धरा


आम,नीम, बबुल बो कर 


कर दें हम उसको हरा ।


शुद्ध होगी वायु तब


फूलों का तू चमन खिला


तितलियों के होंगे साये


हो भंवरो की गुँजार जब।


मेघ बरसेंगे घनाघन 


शुद्ध जल की भरमार हो


होगी धरा फिर सुन्दर


प्रकृति का शृंगार हो ।


 


निशा"अतुल्य"


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