निशा अतुल्य

कितना हालाहल भरा है


जीवन की मधुशाला में 


क्रोध,ईर्षा भरा है दिल में 


प्रेम का प्याला खाली है ।


 


मेरा तेरा रहता मन में 


दंश चहुँ ओर दिखे


विष की तीव्रता इतनी


हर चेहरे पर दाग बड़े ।


 


दाग छुपाते तुम कर्मों के


अपने उजले कपड़ों से


काले मन,तन उजले हैं


जीवन के हलाहल में ।


 


कब तक ओढ़े रखोगें


झूठ के तुम नकाबों को


एक दिन चेहरा दिख जाएगा


झीने झीने तारों से ।


 


कुछ अमृत सच का भी चख लो


चाहे कपड़े हों मैले 


मन का दर्पण साफ़ अगर हो


जीवन में न हलाहल हो ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


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