ये जिंदगी पहले ही बहुत परेशां सी, अब और सवाली न कर।
तू करता ईमान का सौदा, सुन अब नमकहलाली न कर।।
मैं बिल्कुल मुतनईन हूँ उस बेवफा हिसाबी से,
प्रखर दलदल में सने तू , दलालो की दलाली न कर।।
दरी बिछायी है कब्जा भी होगा, बस मकां खाली न कर।
मौसम है मौका और दस्तूर भी,तू मतलबपरस्ती की जुगाली न कर।।
न जाने वो कौन सा मुहुर्त था, जौ तू मेरे गले पड़ी,
जर्जर हिलती दिवार हूँ मैं, तू अब और बदहाली न कर।।
प्रखर
फर्रूखाबाद
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