सरिता
कल -कल कल-कल बहती सरिता,
दो पाटों के बीच।
बड़े प्रेम से जगह-जगह वो,
रही धरा को सींच।
निकली पर्वत माला से है,
जाना सागर पास।
सहती लाखों कठिनाई पर,
होती नहीं उदास।
राह बनाते चलती है वो,
बिना किसी हथियार।
कहीं उछलती गिरे कहीं पर,
बनकर पतली धार।
विमुख लक्ष्य से कभी न होती,
सहकर कष्ट हजार।
मिलती है साजन से जाकर,
साजन के ही द्वार।
रुकती नहीं कहीं वो पल भर,
बहती है दिन-रात।
समय सरीखे है सरिता भी,
सच मानो तुम तात।
नहीं माॅ॑गती कभी किसी से,
बाॅ॑टे दोनों हाथ।
प्यास बुझाए जीव-धरा की,
चलकर देखो साथ।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
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