रचना सक्सेना

मत नापो भारत को अपने सरहद की सीमाओ मे,


आत्मा इसकी अमर रहेगी दुनिया के हर गाँवों में।


जब जब धर्म की बात चलेगी- भारत पूजा जाएगा ,


सब धर्मों को एक धर्म के रूप मे देखा जाएगा।


प्रेम भाव और इंसानियत धर्मो के आधारो मे,


मत नापो भारत को अपने सरहद की सीमाओ मे।


 


उपजी सभ्यता कितनी और दफन हुई इस मिट्टी में,


जलकर लकड़ी राख हो जाऐ- जाकर जैसे भट्टी मे,


जलकर भी न राख हुई - कनक रूप दिख जाऐगा,


भारत का गौरव आज भी वैसे ही मिल जाऐगा।


रीतिरिवाज और संस्कारों के मूल तत्व आधारो मे,


मत नापो भारत को अपने सरहद की सीमाओ।


 


जब भी हवा चलेगी कोई कही किसी दिशाओ से,


भारत के पुष्पो की महक उत्साह भरी आशाओ से।


महकाती धरती विश्व को -हर जगह मिल जाऐगी,


धर्म शास्त्र के ज्ञान की छाया हर जगह दिख जाऐगी।


देशभक्ति से ओझल इस धरती के सब लालो मे,


मत नापो भारत को अपने सरहद की सीमाओ मे।


 


रचना सक्सेना


इलाहाबाद


मौलिक


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