संपूर्णानंद मिश्र

         खो देता है 


   बुद्धि, विवेक मनुष्य 


   प्राप्त करने में इसको‌ 


   रेत देता है गला संबंधों का भी


     बड़ी ताकत होती है पैसे में


      थमाई जाती है 


     असहाय बूढ़े हाथों 


    में लाठियां इसीलिए 


      ताकि कर दे


 एक हस्ताक्षर कांपते हाथों से 


बंट जाता है पिता पैसों की तरह 


नहीं मिल पाता है प्रेम किसी का 


नोचने लगते हैं अपने ही उसे 


मिली होती है माहुर प्रेम- बोल में


          सोखकर रस 


उड़ जाते हैं सारे पक्षी 


  अपने- अपने घोंसलों में


   एहसास होना चाहिए


     जहां उसे अपनों का 


 स्वार्थ की बू आने लगती है वहां 


 घुट घुट कर जीने लगता है 


       ढह जाती है 


उसकी उम्मीदें आखिरी


      आत्मजन के 


  स्वार्थ रूपी जे० सी० बी० से


  निकल जाना चाहता है शेष जीवन की तलाश में


ढूंढने लगता है मुट्ठी भर


     जमीन अपनी


    किसी बृद्धाश्रम में


खून से सींचता है जीवन भर


  जिस परिवार- वाटिका को 


      उजड़ता देखकर


अंधेरा छा जाता है सामने उसके 


     छल लिया जाता है 


     आत्मीय जन द्वारा   


    दम तोड़ देती हैं अन्ततः


   जीने की उसकी ख़्वाहिशें 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...