संदीप मिश्र सरस, बिसवां(सीतापुर)

रिश्तों की गर्माहट


 


किसी ने सुझाव दिया 


अपेक्षाएं मत करो, दुःख नहीं होगा।


 


परामर्श उचित ही होगा।


कितना आसान होता है फार्मूले ईज़ाद करना। 


लेकिन उसे व्यवहारिक जामा पहनाना उतना ही कठिन।


 


तपता सूरज रोशनी दे, तो दे न दे न सही। छलिया चांद चांदनी दे तो दे,न दे न सही।


हमें पुष्पों से खुशबू की अपेक्षा क्यों हो?


हमें मधुबन से सावन की अपेक्षा क्यों हो? हमारी संवेदना को अनुभूति मिले न मिले। हमारी अनुभूति को अभिव्यक्ति मिले न मिले। हमारी भावनाको शब्दों की क्या आवश्यकता? 


हमारे शब्दों को शिल्प की क्या आवश्यकता?


हमारे शब्दशिल्प पर सृजन की निर्भरता क्यों?


 


हम परजीवी थोड़े ही हैं।


हम अपना अस्तित्व स्वयं निर्मित करेंगे।


हम स्वयं को स्थितिप्रज्ञ बनाएंगे।


 


दूसरों का सुख हमें हंसा न सकेगा।


दूसरों का दुख हमें रुला न सकेगा। 


 


हम निर्लिप्त देवत्व को स्पर्श करेंगे।


 


हमारा सब कुछ हमारे नियंत्रण में होगा आखिर हम पर हमारा भी तो हक बनता है।


 


लेकिन एक बात तो सोंचना हम भूल ही गए!


 


हमने संवेदना को रास्ता भटका तो दिया।


हमने भावनाओं को बहका तो दिया।


मन के अस्फुट तंतुओं को बरगला तो दिया। अनुभूतियों, अभिव्यक्तियों को नए सिरे से परिभाषित कर तो दिया।


अनपेक्षा का अनगढ़ सिद्धांत तो स्वीकार लिया।


रिश्तो को फार्मूलाबद्ध कर तो लिया।


 


लेकिन यह नहीं सोचा कि यदि मानव मन में,


स्वाभाविक अपेक्षा न रही तो 


चांद सूरज के स्वाभाविकता का क्या होगा? 


किसी पुष्प की खुशबू अपनी नैसर्गिकता का अर्थ कहां तलाशेगी?


संवेदना अपना वजूद कहां टटोलेगी?


अनुभूति किस चौखट पर सर पटक कर दम तोड़ेगी?


अभिव्यक्ति को शब्द कहां मयस्सर होंगे?


और शब्दों के अर्थ कब तक अपने अस्तित्व की गवाही देंगे?


 


और जब यह सब मर जाएंगे।


 


संवेदना नहीं होगी, अनुभूति नहीं होगी।


अभिव्यक्ति नहीं होगी, शब्द नहीं होंगे।


अर्थ नहीं होंगे, रिश्तो में भावना नहीं होगी। 


संवेग नहीं होंगे तीव्रता नहीं होगी।


 


और अंततः अपेक्षा नहीं होगी। तो फिर क्या बचेगा?


रिश्ते बेमानी न हो जाएंगे?


 


रुकिए,ठहरिए,सोचिए 


 


यदि रिश्तो में आत्मीय अपेक्षा ही न रही


तो रिश्तो की गर्माहट का क्या होगा?


 


रचनाकार,


संदीप मिश्र सरस, बिसवां(सीतापुर)


मो-9450382515/9140098712


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