संजय जैन

न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।


हर आते जाते पर


नजर थोड़ी रखता हूँ।


पर कह नही सकता 


कुछ भी घरवालो को।


और अपनी बेबसी पर


खुद ही हंसता रहता हूँ।।


 


बहुत जुल्म ढया है हमने


लगता उनकी नजरो में।


सब कुछ अपना लूटकर


बनाया उच्चाधिकारी हमने।


तभी तो भाग रही दुनियाँ उनके आगे पीछे।


और हम हो गये उनको


एक बेगानो की तरह।


गुनाह यही हमारा है की


उनकी खातिर छोड़े रिश्तेनाते।


इसलिए अब अपनी बेबसी पर


खुद ही हंस रहा हूँ।।


 


खुदको सीमित कर लिया था 


अपने बच्चों की खातिर।


और तोड़ दिया थे


रिश्तेनाते सब अपनो से। 


पर किया था जिनकी खातिर


वो ही छोड़ दिये हमको।


पड़ा हुआ हूँ उनकी घर में


एक अंजान की तरह से।


और भोग रहा हूँ अब


अपनी करनी के फलों को।


तभी तो खुद हंस रहा हूँ


अपनी बेबसी पर लोगो।।


न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


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