समझे जिसे फूल ए गुलिस्तां
वो काँटों की बाढ़ निकली
मिलेगा सकूं ए दिल सुरभि से
सुगन्ध नहीं झाड़ निकली
दिख रहा रूप सौंदर्य का कोष
सुहाना और अति मनोहर
अन्तर्मन से उतना ही जहरीला
जीवन घातक नहीं शोभर
रिझाती सी सम्मोहित सी करती
जिंदगी में उल्लास भरती
जग को सजाती संभारती सी वो
उन्नति कभी ह्रास करती
कौंन है वह अनुपमेय सुंदरी सी
जिसे समझ नहीं पा रहा
है वह खुशी भी और बेरुखी भी
जिसे हयात कहा जा रहा।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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