सत्यप्रकाश पाण्डेय

नग शिखरों से दौड़ पड़ी 


अपने प्रियतम से मिलने


ऊबड़खाबड़ पथरीले पथ


आँखों में स्वर्णिम सपने


 


कहीं सघन कांतार व्याप्त


कहीं दुर्गमता रोकें प्रवाह


कहीं शिलाखन्ड टूटकर 


विरहिणी की रोकें है राह


 


अविचल सी अव्यथित हो


वो तो चली लक्ष्य की ओर


सारे अवरोध तोड़ बढ़ रही


जिस रवि से मिलनी है भोर


 


छोड़ के सारे जग के बंधन 


उस असीम की ओर चली 


निज अस्तित्व मिटा देगी


गिरि उपवन का छोड़ चली


 


शैल उतंग से लगाव कहाँ 


न सुरभित कानन से मोह


नहीं वसुधा का आकर्षण


असहनीय उदधि बिछोह


 


पारावार ही मंजिल उसकी


उसी अनन्त की गोद प्रिय


चली उसी से मिलने सजनी


जगत छोड़ वह मोद प्रिय


 


वैसे ही यह जीवन सरिता


परमब्रह्म सागर से मिलने


क्यों न लालायित रहती है


इहि भव-सागर से तरने


 


उस असीम गोद में जाकर


जहां अनंत को मिले सहारा


जीव नदी के लिए अधिक न


इससे बढ़कर कोई किनारा।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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