आँखों के स्वर्णिम सपने.......
झील सी गहरी आँखों में
मैंने अपना प्रतिबिंब निहारा
अथाह हृदय सरोवर में
मन मराल तिरता था प्यारा
कुछ झोंके तो ऐसे आये
तन मन झुलसा गये हमारा
कहीं शीतल पवन चली
पुलकित की जीवन की धारा
कहीं आघात प्रत्याघात
दौड़ पड़े ले छल की तलवार
गला काट मुहब्बत का
वह करने लगे वार पर वार
समझे जिसे शीतल छाया
ज्वालामुखी सा लावा निकली
नवनीत सी कोमलता से
जीवन शकट हमारी फिसली
प्राकट्य हुआ उसका तो
समझे जीवन होगा खुशहाल
धूमकेतु सी निकली वह
प्रवृति देख सत्य हुआ बेहाल
काश जाह्नवी सी धारा
बन करके दुःख संताप हरे मेरे
आँखों के स्वर्णिम सपने
वह बाला,शायद पूर्ण करे मेरे।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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