चाहत का रुख मोड़ दिया..
स्नेह अपार किया जिनसे
वो इतने दूर चले गए हमसे
बहुत तलाशा फिर हमने
न मिल पाये वो फिर हमसे
अनुराग कोष लुटाके भी
हम प्रीति क्रीत नहीं कर पाये
व्यर्थ हुई मेहनत अपनी
विश्वास हृदय में न भर पाये
अवनि अम्बर सागर में
हर पल जिनका रूप निहारा
प्रकृति के फूल पत्रों में
सुरभित वदन दिखा था प्यारा
सुंदर सौम्य मुख मयंक
आलोक मान लिया जीवन का
भेजा है विधु ने आश्रय
समझ न पाये भ्रम है मन का
मधुर मनोरम चितवन
उसे ही प्यार समझ बैठें उनका
मृगतृष्णा से छले गये
रहस्य जान नहीं पाये मन का
कत्ल हुआ अरमानों का
हमें कैसे तड़पन को छोड़ दिया
विरह ज्वाला में झुलसे
फिर चाहत का रुख मोड़ दिया।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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