किसी रूप की धूप से झुलसा बदन मेरा
कहीं मिले नहीं मुझको ठंडे जल के छींटे
बेरुखी दिखती है भले ही उसके मन में
फिर भी उसके हर अंदाज लगते है मीठे
लगा आँखों में अंजन रचा ओठों पै लाली
आकर्षक मोहिनी हर पल जो लुभाती है
घुंघराली लटों का जादू खींचता तार मन के
भंगिमाओं से वो तो हर दिल को रिझाती है
ऐसे कौंन से हैं गुण जो उसे मादक बनाते
डालती है चितवन हृदय छलनी हो जाते
पिलाती जाम आँखों से अधर सुरा प्याली
और हम जैसे आशिक घायल किये जाते
कैसे बयां करूँ अंदाजे ए मुहब्बत मैं उसका
कितना स्नेह या नफरत करती है वो हमसे
कर दिया बेचैन सत्य को छीन के निंदिया
चाहती है वह आवादी या बर्बादी हमसे।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें