मेरे वतन के नील गगन को
घने कुहासे ने घेरा था
संवैधानिक पेचिदगियों से
फैला कहीं अंधेरा था
एक राष्ट्र में दो दो ध्वज थे
पृथक पृथक थे कानून
गुमराह हुए लाल भारती के
पत्थरबाजी का ले जनून
अपनों का ही खून खराबा
अपनों द्वारा ही आतंक
अपने ही मुल्क में रहकर के
रहते थे हरपल आशंक
अपने ही राम की धरती पै
नहीं राम का आशियाना
जाति धर्म का जहर घोल के
अपनों को बनाया बेगाना
बीत गये कितने दिन बरस
मानवता को पीड़ा पाते
कितनी बार लहूलुहान रसा
कितने साल रहे करहाते
अब स्वतंत्रता के सही मायने
समझ हमारी में आये हैं
नव उदित भारतीय मूल्य जो
वर्तमान में अपनाये हैं।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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