श्रीकांत त्रिवेदी

स्वातंत्र्य दिवस का पावन दिन,


हमसे यह कहता रहता है।


संयम,अनुशासन बिन मेरा,


अस्तित्व अधूरा रहता  है ।।


 


मै भारत राष्ट्र पुरातन हूं ,


चिर नूतन हूं,अधुनातन हूं,


दुष्यंत पुत्र से मिला नाम,


श्रीभरत की तरह सनातन हूं।


इंडिया नाम स्वीकार नहीं,


सुनकर मन रोता रहता है ।।


 


अपनी इस भारतमाता की,


बेड़ियां खुलीं संघर्षों से ,


पर अंग कटे,उन घावों से,


बह रहा रक्त है बरसों से!


उसकी पीड़ा को हरने का,


प्रण याद रहे ये कहता है!!


 


माना अंग्रेज नहीं हैं अब,


अग्रेजी फिर भी भारी है,


रह गई मात्र भाषा बनकर,


हिंदी की सिसकी जारी है!


हम कहें राजभाषा लेकिन ,


दासत्व भाव ही रहता है !!


 


खुद को कहने में भारतीय,


जब तक हमको हो गर्व नहीं,


तब तक है सिर्फ दिखावा ही,


कोई   स्वतंत्रता - पर्व   नहीं !


ये देश विश्व का मुकुट बने,


अपनी अभिलाषा कहता है!!


 


उत्तर में पुण्य हिमालय से,


दक्षिण लहराते सागर तक,


गिलगित से अक्षय चिन्ह तलक


कैलाश से मानसरोवर तक !


लहराए  तिरंगा  या  भगवा ,


मन में यह  सपना रहता है !!.........


 


कुछ किया,बहुत कुछ बाकी है,


जो हुआ वो बस इक झांकी है,


पटकथा अधूरी है अब तक,


मंचन  तो  पूरा  बाकी  है ! 


पूरे हो सकें स्वप्न सारे ,


हो लक्ष्य एक ही कहता है!!


          .... श्रीकांत त्रिवेदी


                     लखनऊ


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