सुनीता असीम

दहन का काम है केवल रहा सुलगने का।


जो इसके पास में जाए वही है जलने का।


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बहार देख बहारों में नाचता है दिल।


मिन्नतें कितनी करो ये नहीं बहलने का।


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बड़े हुए हो उन्हीं मां पिता के हाथों में।


न नाम लेना कभी उनको तुम झटकने का।


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चला चली का है मेला जगत में देखो रे।


यहां पे काल से कोई नहीं है बचने का।


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करोना काल में बैठे रहो घरों में सब।


नहीं है वक्त ये बाजार में भटकने का।


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सुनीता असीम


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