देखा जो रौद्र रूप तेरा मैं सिहर गई।
करना नहीं था काम मुझे वो ही कर गई।
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दिल तक उतर गई थी मुहब्बत की तिश्नगी।
लगती रही थी बात बुरी ये सुधर गई।
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मुंह को फुला रखा था जमाने से आपने।
ये बात सोचने में मेरी शब सहर गई।
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रिश्ता निभा रही थी मैं जी जान से सदा।
लेकिन मेरी कभी पे ही तेरी नज़र गई।
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उस प्यार की चढ़ी थी ख़ुमारी घड़ी घड़ी।
वो रात से शुरू हुई सुबहा उतर गई।
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सुनीता असीम
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