नाम होंठों पर तेरा ही रह गया।
ख्वाब का था इक महल जो ढह गया।
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देखकर भी जुल्म तेरे हमनशीं।
मन मेरा था बावरा जो सह गया।
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कुछ नहीं रक्खा दिलों के मेल में।
हिज्र का मुझसे हरिक पल कह गया।
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जो बचा मुझमें रहा था तू कहीं।
आंसुओं के साथ वो भी बह गया।
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इंतिहा थी दर्द की जितनी रही।
दिल कराहों से उसे भी कह गया।
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सुनीता असीम
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