हम भी ज़िन्दा हैं यहाँ एक फ़साने भर तक
याद रख्खेगा हमें कौन ज़माने भर तक
अब किताबों में भला कौन खपाता ख़ुद को
पूछ होती है इन्हें घर में सजाने भर तक
जिसको रोते हुए यह उम्र हमारी गुज़री
वो चला साथ मगर रस्म निभाने भर तक
फिर पलट कर तो कभी हाल न पूछा हमसे
उसने साधा था हमें एक निशाने भर तक
जानते हैं कि मनाऊंगा क़सम दे दे कर
नाज़ होते हैं फ़कत मुझको सताने भर तक
अब तो गाँधी ओ जवाहर पे सियासत देखो
याद करते हैं उन्हें नाम भुनाने भर तक
उसके हाथों का रहे सिर्फ़ खिलौना *साग़र*
खेल खेला था कोई ख़ुद को हँसाने भर तक
🖋️विनय साग़र जायसवाल
बरेली
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