बाक़ी हुरूफ़ जो ये मेरी दास्तां के हैं
अहसान यह भी मुझ पे किसी मेहरबां के हैं
रह-रह के बिजलियों को है इनकी ही जुस्तजू
तिनके बहुत हसीन मेरे आशियां के हैं
क़ुर्बानियाँ शहीदों की भूले हुए हैं लोग
गुमनाम आज नाम उन्हीं पासबां के हैं
इन रहबरों ने आज किताब-ए-हयात से
नोचे वही वरक जो मेरी दास्तां के हैं
फैला पड़ा है ख़ून समुंदर की शक्ल में
क़ातिल तेरी निगाह में मंज़र कहां के हैं
हँसते हुए ही दारो-रसन पर चढ़ेंगे हम
फ़रज़न्द हम भी दोस्तो हिंदोस्तां के हैं
इन तेज़ आँधियों का चराग़ों न ग़म करो
फानूस बन के लोग खड़े आशियां के हैं
आने न देंगे आँच तिरंगे की शान पर
पाबंद हम तो आज भी अपनी ज़ुबां के हैं
फिर मकड़ियों ने जाल बुने हैं जगह जगह
ग़र्दिश में फिर नसीब क्या अपने मकां के हैं
🖋️विनय साग़र जायसवाल
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