शिक्षक है वो जेवर जिसका,
कोई मोल नहीं होता।
सच्चे कोहिनूर हीरे का,
निज भूगोल नहीं होता।
सिंचित करता ज्ञान सभी का,
नेह सुधा रस बरसाता।
बुद्धि विवेक अलौकिक करके,
विनय भाव से नहलाता।
वो हर लेता घोर तिमिर को,
दीपक बनके ख़ुद जलता।
पत्थर में भी फूल खिलाकर,
हर जीवन सुष्मित करता।
आखर आखर हमें सिखाकर,
राह प्रगति की दिखलाता।
बाहर से मृदु थाप लगाकर
सुरलय कारक बन जाता।
उसके अहसानों का बदला,
जग में कौन चुका सकता।
धुँधले दर्पण को उजला कर,
बिंब सभी रोशन करता।
जिसकी अनुपम छवि के आगे,
हर वैभव फ़ीका लगता।
सृष्टि समाहित उद्भव आगे
कोई बोल नहीं सकता।
ऐसे ज्ञान जलधि में प्राणी,
डुबकी ले मोती चुनता।
पाने को सम्मान जगत में,
स्वप्न सुनहरे नित बुनता।
अर्चना द्विवेदी
अयोध्या
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